आइये इस बार दीपावली प्रदूषित ना करें

पूरा विश्व इस बात से अवगत है कि दीपावली रंगों, रोशनियों और खुशियों का त्योहार है। सिर्फ भारत तक ही सीमित ना होकर, बल्कि विश्व के अनेकों कोनों में लोग इस त्योहार को बहुत ही चाह और उत्साह से मनाते हैं। मिथिहास, इतिहास और साहित्यक पक्ष, हमें सभी धर्मों, वर्ग के लोगों को इस त्योहार को मनाने के लिए प्रेरित करते हैं। समय के चलते मनुष्य तरक्की की सीढ़ी चढ़ता गया और उसके पर्व — त्योहार मनाने के तौर तरीके भी समय के साथ ही बदलते गए। सदियों से मनाए जाते आ रहे इस त्योहार को पहले लोग बहुत ही अदब— सलीके से मनाते हुए भगवान की रज़ा में रहते थे और हर कार्य में कुदरत और कुदरती स्त्रोतों को विशेष अहमियत दी जाती थी।

पर अफसोस, आज स्थिति अजीबो—गरीब बन चुकी है। त्योहारों के दिनों में ऐसे काम किए जाते हैं कि भगवान की बनाई कुदरत का सत्यानाश हो रहा है। साधारण शब्दों में कहें, तो हम त्योहारों के नाम पर धरती को गंदा करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझने लगे हैं। हवा, पानी और धरती को इतना गंदा किया जाता है कि शब्दों में उसे बयान करना भी कठिन है। वास्तव में, दीवाली का मतलब लोक दिखावा बना रखा है। अपने सगे—संबंधियों और आस — पड़ोस को दिखावे के लिए हर आदमी हर दूसरे से अधिक प्रभावशाली बनने और दिखने की कोशिश में है। इस दिखावे और प्रभाव की खेल में इंसान इतना उलझ गया है कि वह कुदरत से हर पल दूर होता जा रहा है। दीवाली से कुछ दिन पहले घरों और आस—पास की सफाई पर पूरा ज़ोर दिया जाता है परंतु दीवाली वाली रात के बाद धरती को कूड़ेदान का रूप बना, हम हर वर्ष अपनी आंखों से देखते हैं। कितनी अजीब स्थिति है कि घरों में बच्चों को पवित्र त्योहार के मिथिहास और ऐतिहासिक पक्षों आदि को छोड़ सिर्फ बम — पटाखों या खाने — पीने वाली बाज़ारी वस्तुओं पर चर्चा की जाती है। कुदरती वस्तुओं को छोड़ बनावटी वस्तुओं ने हमारी ज़िंदगी में अहम स्थान ले लिया है। हमारी हवा, पानी, खाना — पीना, भोजन की थाली आदि सब ज़हर से भरपूर कर रखी हैं। सादा जीवन जीने पर लोग शर्म महसूस करने लगे हैं।

दीपावली पर सबसे पहला कार्य, लोग घरों को सजाते हैं। सजावट के तौर — तरीके कुदरती तौर पर कम होते जा रहे हैं। घरों की बनावट कुदरती रोशनी और हवा के बहाव को मुख्य ना रखकर, बंद—बंद तरीके के होटलों जैसे घर बनने शुरू हो गए हैं। पेंट यानि रंगों का प्रयोग बहुत ज्यादा बस चुका है जो घरों में रहने वालों के लिए अनेकों तरह की बीमारियां विशेष कर एलर्जी का कारण बनना शुरू हो गए हैं। दीवारों पर रंगों के अलावा फर्नीचर आदि पर भी खतरनाक पेंट का रूझान बहुत घातक है। कुदरती सुगंधों से दूर घरों — दफ्तरों आदि में बनावटी सुगंध मतलब रूम — फ्रैशनरों का अंधाधुंध प्रयोग हमारे और हमारे बच्चों के लिए सांस के रोगों के लिए आमंत्रण है। घरों के अंदर लोगों को कुदरती पौधों की देख रेख करनी मुश्किल लगने के कारण बनावट और गहरे रंगों की फूल — लड़ियों ने अपना घर बना लिया है। हमारे पास घरों के अंदर रखने के लिए एरीका पाम, रैफिश पाम, एगलोनिमा, ड्रासीना, सिनगोनीयम, फर्न, मोन्सटेरा आदि अनेकों पौधे हैं जो खूबसूरत लगने के साथ साथ घरों के अंदरूनी प्रदूषण को कम करने में भी सहायक होते हैं।

दीपावली या किसी भी त्योहार वाले दिन पहले लोग सुबह उठते ही सबसे पहले भगवान का नाम लेते थे। हर धर्म से संबंधित परिवार अपने धार्मिक स्थान या घर में पूजा — पाठ करते थे। पूजा — पाठ आज भी जारी है परंतु तरीके बदल गए हैं। कुदरती फूलों की जगह बनावटी फूलों ने ले ली है। सुगंध के लिए बनावटी तरीकों को तरजीह दी जाती है। कई लोगों के घर के अंदर बने पूजा घर, परमात्मा का स्थान और परफ्यूम की दुकान ज्यादा लगते हैं। कुछ लोग तो अपने धर्म से संबंधित संगीत इतनी आवाज़ में बजाते हैं कि बच्चों — बुज़ुर्गों का जीना मुश्किल हो जाता है। संगीत का प्रभू भक्ति में लीन होने का गहरा रिश्ता है। परंतु संगीत शोर का रूप नहीं होना चाहिए। रंगोली का त्योहारों से, विशेषत दीपावली से गहरा रिश्ता है। रंगोली घरों में ही नहीं, बल्कि संस्थाओं, होटलों, पैलेसों आदि में भी खूब बनाई जाने लगी है। पर अच्छा हो, यदि हम रंगोली के लिए कुदरती रंग, जैसे कि सफेद रंग चावल का पाउडर, पीले के लिए हल्दी, हरे के लिए सौंफ या फिर अनेक किस्मों की दालों या फिर फूलों की पत्तियों का प्रयोग करें।

रोशनी के बिना यह त्योहार अधूरा और बेरंग है। पर हम घर — इमारतों को सुखाने के लिए इतनी ज्यादा बिजली या एनर्जी प्रयोग करने लग गए हैं तो इसका फल हमें भविष्य में भुगतना पड़ेगा। अत्यंत जरूरी हो तो एल.ई.डी लाइटों का ही प्रयोग करें। मिट्टी के दीयों का सबसे अहम काम है। घर में शाम होते ही दीयों में तेल डालना, बनेरोंं पर रखना, पर्यावरण प्रेम तो है ही, साथ ही साथ परिवार में समीपता भी बढ़ाता है। मोम बत्तियां भी हवा को गंदा करती हैं परंतु बी वैक्स यानि मधु मक्खियों से प्राप्त मोम प्रयोग की जा सकती है।

हमारा कोई भी त्योहार खाने — पीने के बिना बिल्कुल अधूरा है। पर हम आज घरों में शुद्ध और साफ वस्तुएं बनाने की बजाए बाज़ार की महंगी और सेहत के लिए घटिया मिठाइयां खाने को पहल देने लगे हैं। पहले लोग घरों में स्वंय लड्डू, खीर, हलवा, केक आदि अनेकों वस्तुएं मिलजुल कर खाते थे, खाना परोसने के लिए भी पहले लोग केले के पत्ते, या वृक्षों के पत्तों से बने दूने — प्लेटों आदि का प्रयोग करते थे जो बाद में धरती के प्रदूषण का कारण नहीं बनते थे। आज लंगर लगाने वाले और खाने वाले तो चले जाते हैं परंतु प्रयोग किए बर्तन कूड़े के ढेरों में परिवर्तित हो जाते हैं। यदि हमें अपनी और धरती की सेहत अच्छी रखनी है तो हमें हमारे खाने—पीने और रोजाना जीवन जांच के लिए सचेत होना पड़ेगा।

तोहफे देने—लेने का काम इस दिन पर विशेष किया जाता है। हमारे ज्यादातर तोहफे हमारी सेहत या फिर वातावरण के लिए खिलवाड़ पैदा करने वाले ही होते हैं। और तो और तोहफों को पैक करने के लिए प्रयोग किया जाने वाला सामान टनों में कूड़े के ढेरों में परिवर्तित हो जाता है। कितना अच्छा हो, यदि हम फूल — पौधों को तोहफों में देने का रिवाज़ शुरू करें। कितना अच्छा हो यदि हम बुआ — मासी के घर शूगर वाली मिठाई के डिब्बे की बजाय नींबू, अमरूद, आम, नाशपाति आदि का पौधा लेकर जाएं। सारा परिवार आपको पूरी उम्र आशीष देगा।

पटाखों और प्रदूषण के संबंध से आप सभी अच्छी तरह से अवगत हैं। आवश्यकता है तो सिर्फ सोच बदलने की। मैं हर वर्ष आस— पड़ोस देखता हूं कि लोग लाखों रूपये के पटाखों को कुछ ही मिनटों — घंटों में आग लगाकर फूक देते हैं। कितना अच्छा हो यदि उन पैसों का कुछ या ज्यादातर हिस्सा अनाथालय, बेसहारा घरों में पल रहे बच्चों, बुजुर्गों, गरीबों को देकर उनसे आशीर्वाद लिया जाए। हवा और आवाज़ का प्रदूषण हमें हमारे पतन की ओर लेकर जा रहा है।

दोस्तों, अंतत: बात तो यह है कि परमात्मा ने हमें स्वर्ग रूपी धरती, अमृत रूपी पानी और सांस लेने के लिए शुद्ध हवा बख्शी थी जिसे हमने अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए गंदा कर छोड़ा है। भगवान की सृजित कुदरत अद्भुत है। भगवान ने ज़र्रे — ज़र्रे में रंग, रोशनी और खूबसूरती बख्शी है। कभी अपनी आंखों से बनावटीपन की ऐनक और खूबसूरती बख्शी है। नीली छतरी वाले के सृजित फूल — पौधों के रंग किसी भी बनावटी सजावट से कहीं ऊपर हैं। आइये, हम सब मिलजुल कर यह दीवाली भगवान के रंग में रंगकर देखें और मनायें।

ज़र्रे—ज़र्रे में रंग है, रोशनी है, नूर है,
दिल से देखें तो जानें धरती एक हूर है।

डॉ. बलविदंर सिंह लक्खेवाली
9814239041

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