कद्दूवर्गीय सब्जियों में कीट एवं रोग नियंत्रण

कद्दूवर्गीय सब्जियाँ गर्मी के मौसम में तैयार होने वाली सब्जिया है। अन्य सब्जियाँ इन दिनों उपलब्ध नहीं होने के कारण बाजार में इनका अच्छा भाव मिलता है। अतः इन दिनों कद्दूवर्गीय सब्जियों की खेती से अच्छा लाभ प्राप्त होता है। कद्दूवर्गीय सब्जियों में मुख्यतया कद्दू, करेला, लौकी, ककड़ी, तुरई, पेठा, परवल, टिण्डा, खीरा आदि प्रमुख है।

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कद्दूवर्गीय सब्जियों के फायदे

इन सब्जियों का औषधीय दृष्टि से बड़ा महत्व है, जैसे करेला गठिया रोग, ककड़ी नमक के साथ कच्ची खाने पर पेट के विकारों में एवं मूत्र विकारों में लाभ होता है। खीरा मधुमेह व ह्रदय रोगी के लिए लाभकारी होता है। परवल के फल पेट विकारों में लाभदायक होते है व इसकी सब्जी कब्ज दूर करने वाली, मूत्र प्रणाली को साफ करने में सहायक ह्रदय, मस्तिष्क तथा रक्त संचरण तंत्र में उपयोगी है। इन सब में लौकी को सबसे अधिक स्वास्थ्य लाभकारक माना गया है। लौकी कब्ज को रोकती है तथा इसका गुद्दा मूत्र रोग एवं पेट साफ करने के लिए बहुत उपयोगी है।

प्रमुख कीट तथा उनकी रोकथाम

यधपि कद्दूवर्गीय सब्जियों का उत्पादन अच्छा होता है, परन्तु बहुत से कीट एवं व्याधियाँ कद्दूवर्गीय सब्जियों के उत्पादन को प्रभावित करते है तथा कभी-कभी प्रबंधन के आभाव में पूरी फसल को नष्ट कर देते है। अतः इन कीटों व रोगों का उचित समय पर उपयुक्त प्रबंधन करना आवश्यक है। कद्दूवर्गीय सब्जियों की फसल में लगने वाले कीट व रोग इस प्रकार हैं।

फल मक्खी कीट

This male fruit fly (Zaprionus vittiger) devoid of abdominal pigments illustrates the morphological diversity of abdominal pigmentation in Drosophilidae. Nicolas Gompel, postdoctoral fellow in molecular biology, researched the genes that drive differences in pigmentation in fruit flies (genus Drosophila), using this fly from a species stock center and other flies caught at his University Housing apartment and at the University Housing community garden compost heap. ©UW-Madison University Communications 608/262-0067 Photo by: Nicolas Gompel Date: 6/03 File#: Scan provided, E880 digital camera frame 6810

फल मक्खी के मादा कीट कोमल फलों में अपना अण्डारोपक गड़ा कर छिलके निचे अण्डे देती है। इन अण्डों से लटें निकल कर फल में सुरंग बना कर फल के गुद्दे को खाती है जिससे फल सड़ने लगते है और टेड़े-मेड़े हो जाते है तथा कमजोर होकर बेल से अलग हो जाते है। क्षतिग्रस्त फल पर अण्डा दिए गए स्थान से तरल पदार्थ निकलता रहता है जो बाद में खुरंट बन जाता है। पूर्ण विकसित लट फल से निकलकर मिट्टी में जाकर शंकु बनाती है। यह कीट फरवरी से अक्टुंबर माह तक सक्रिय रहता है किन्तु वर्षाकाल में इस कीट का प्रकोप अधिक हो जाता है।

रोकथाम
किसानों को फल मक्खी कीट के प्रबंधन के लिए सर्वप्रथम सड़े हुए या गिरे हुए या इससे ग्रसित फसल को इकट्ठा करके नष्ट कर देना चाहिए। यह कीट मिट्टी में 5-6 मि.मी. की गहराई पर अपने प्यूपा बनाती है। अतः बेलों के आस-पास अच्छी तरह से निराई-गुड़ाई करनी चाहिए और पूरी होने पर खेत की गहरी जुताई करनी चाहिए। कद्दूवर्गीय सब्ज्जियों के चारों तरफ मक्का की फसल लगानी चाहिए क्योंकि फल मक्खी ऊँची जगह पर बैठना पसंद करती है और इसका का नर कीट मक्का की फसल पर बैठता है। जिस पर मैलाथियान 50 ई.सी. नामक कीटनाशी की 50 मि.ली. मात्रा को आधा कि.ग्रा. गुड़ एवं 50 लीटर पानी के साथ घोलकर छिड़काव करे या कार्बेरिल घुलनशील चूर्ण 50 प्रतिशत एक कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर के हिसाब से फसल पर छिड़काव करें।

कद्दू (काशीफल) का लाल भृंग कीट

यह एक बहुभक्षी भृंग है। प्रौढ़ कीट, लाल रंग के चमकीले 5-6 मि.ली. लम्बे होते है। लटे पीले क्रीम रंग की 10-15 मि.ली. लम्बी होती है। इनका सिर भूरे रंग का व पेट काले रंग का होता है और शरीर पर सफेद बालों से ढका होता है। भृंग गीली मिट्टी में 150-300 तक अण्डे देती है। इसकी सुंडी मिट्टी के अन्दर घुसकर पौधे की जड़ों तथा भूमि को स्पर्श करने वाले समस्त भागो को हानि पहुँचाती है। यह कीट मार्च से अक्टुंबर तक सक्रिय रहता है परन्तु अधिकतम सक्रियता ग्रीष्म ऋतू में रहती है।

रोकथाम
इसकी रोकथाम के लिए फसल के आस-पास अच्छी प्रकार से निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। प्रातःकाल से सूर्योदय तक यह कीट निष्क्रिय रहता है, इस समय प्रौढ़ कीटों को एकत्रित कर केरोसिन मिश्रित पानी डाल कर नष्ट किया जा सकता है। इस कीट के प्रबंधन के लिए फसल उगने के बाद 7 किलो कार्बोफ्युरान 3जी के कण 3-4 से.मी. की गहराई पर मिट्टी में पौधों की कतारों के पास देकर पिलाई करनी चाहिए। फसल की बीज पत्रक अवस्था में, कार्बेरील (5%) या मेलाथियोन(5%), चूर्ण का भुरकाव 20 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से करें अथवा मेलाथियोन 50ई.सी.(0.05) का छिड़काव करें। जिन क्षेत्रों में भृंग का प्रकोप प्रतिवर्ष होता है, वह बुवाई के समय कार्बोफ्युरान 3जी. 35 कि.ग्रा. प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में डालना चाहिए।

हरा तेला, सफेद मक्खी, मोयला आदि रास चूसने वाले कीट

कद्दूवर्गीय सब्जियों की लगभग सभी प्रजातियों में इन कीटों का प्रकोप होता है इनके प्रौढ़ एवं शिशु कॉलोनी के रूप में पौधे के नरम भागों से रस चूसकर क्षति पहुँचाती है इसी कारण पुरानी की अपेक्षा नई बेलों तथा नए बने छोटे फलो पर इस कीट पर प्रकोप अधिक होता है। अत्यधिक प्रकोप से पत्तियां सिंकुड़ जाती जाती है। तथा फलों की बढ़वार रुक जाती है। इन कीटों के प्रकोप से पत्तियों पर चिपचिपा पदार्थ जमा हो जाता है जिस पर कई प्रकार की काली फफूंद पैदा हो जाती है और पत्तियाँ एवं पर्णवृन्त काले पड़ जाते है। ये कीट फसलों में कई प्रकार के वाइरस जनित रोगो को फैलाने में भी सहायक होते है, जिस से कभी- कभी पौधों को अपार हानि होती है। आसमान में लगातार बदल छाए रहने से व वातावरण में अधिक आद्रता होने से इन कीटों का प्रकोप बढ़ जाता है।

रोकथाम
इन कीटों के प्रबंधन के लिए 750 मि.ली. ऑक्सीडिमेटान मिथाइल 25 ई.सी. या 650 मि.मी. डाईमेथोएट 30 ई.सी. या 100 मि.ली. इमीडाक्लोप्रिड 200 एस.एल. या 1.5 लीटर ट्राइजोफॉस 40 ई.सी. या 2 लीटर इथियान 50 ई.सी. प्रति हैक्टेयर 250 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए आवश्यकता हो तो 10-15 दिन में पुनः छिड़काव करना चाहिए।

माईट या बरूथी कीट

इस कीट का प्रकोप मानसून पूर्व गर्म मौसम में प्रायः देखा जाता हैं। बरूथी का आक्रमण पत्तियों की निचली सतह पर होता हैं, जहाँ यह शिराओं के पास अण्डे देती हैं। वयस्क, पत्तियों का रस चुस्ती हैं तथा अपने चारो और रेशमी चमकीला जाला तैयार कर लेती हैं। बरूथी ग्रस्त पत्तियों की शिराओं के आसपास का क्षेत्र पीले रंग का हो जाता हैं। कीट प्रकोप की तीव्र अवस्था में, चितकबरी होकर चमकीली पीली हो जाती हैं। पत्ती पर बने जाले पर मिट्टी के कारण जमा हो जाते हैं। इस अवस्था में पौधे से पत्तियों का गिरना शुरू हो जाता हैं। फलस्वरूप कद्दूवर्गीय सब्जियों की वृद्धि एवं उपज दोनों पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।

रोकथाम
इस कीट के नियंत्रण के लिए गंधक के चूर्ण या घुलनशील गंधक (0.2%) का छिड़काव करना चाहिए। मिथाइल पैराथियान (0.2%) या फोसालिन (0.2%) का छिड़काव भी प्रभावकारी रहता हैं।

हाडा भृंग कीट

यह कीट हल्का पीलापन लिए हुए छोटे आकर के होते हैं। इसके पंखो पर 6-14 काले रंग के गोल धब्बे पाए जाते हैं। व्यस्क तथा भृंग दोनों ही कद्दूवर्गीय सब्जियों को क्षति पहुँचाते हैं। भृंग पत्तियों के बीच में चिपके रहते हैं तथा खुरच कर जाल सा बना देते हैं। अंकुरण के बाद मुलायम पत्तियों को ही खाते हैं।

रोकथाम
इस कीट की रोकथाम के लिए किसानो को कीट ग्रस्त पत्तियों को इकट्ठा कर गद्दे में दबा देना चाहिए और कीट लगने पर कार्बोरील के चूर्ण का भूरकाव सुबह के समय करना चाहिए।

सर्पाकार पर्ण खनक (सुरंगक) कीट

कद्दूवर्गीय सब्जियों तुरई, लोकि, खीरा, करेला आदि फसलों में इस कीट से बहुत अधिक नुकसान होता हैं। कीट की लटें पत्ती की बहरी त्वचा के निचे सर्प के आकर की तरह टेढ़ीमेढ़ी सुरंगे बनाती हैं। कीट द्वारा पत्ती पर अंडे देने के 3-4 दिन बाद पतली- पतली सुरंगे बनना प्रारंभ हो जाती हैं। धीरे- धीरे ये सुरंगे चौड़ी होकर पत्ती की पूरी सतह पर फेल जाती हैं।

रोकथाम
इस कीट की रोकथाम के लिए किसानो को कीट ग्रस्थ पत्तियों को तोड़कर नष्ट कर देना चाहिए। इन कीटों के प्रबंधन के लिए 750 मि.ली. ऑक्सीडिमेटान मिथाइल 25 ई.सी. या 650 मि.मी. डाईमेथोएट 30 ई.सी. प्रति हैक्टेयर 250 लीटर पानी में फल लगने से पूर्व छिड़काव करना चाहिए।

प्रमुख रोग एवं उनकी रोकथाम

छाछया या चूर्णिल आसिता रोग

यह रोग एरीसाइफी सकोरीसियेरम और स्पेरियोथिका फ्यूजीयजेना नामक फफूंद से होता है। इस रोग के कारण कद्दूवर्गीय सब्जियों की बेलों व पत्तियों पर तथा अधिक प्रकोप होने की स्तिथि में डण्ठलों व फलों पर सफेद चूर्ण सा जमा हो जाता है। इससे फलों की बढ़वार रुक जाती है, पत्तियाँ सुखना प्रारम्भ हो जाती है। फल भी कमजोर हो जाते है तथा पैदावार कम हो जाती है। यह रोग मुख्य रूप से वायु से एक स्थान से दूसरे स्थान पर फैलता है।

रोकथाम
इस रोग के रोकथाम के लिए केराथेन एल.सी. 1 एम.एल. प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए तथा आवश्यकता पड़ने पर 15-15 दिन के अंतराल पर छिड़काव को दोहराना चाहिए। इस रोग की रोकथाम सल्फर पावडर अर्थात गंधक का चूर्ण 25 किलो प्रति हैक्टेयर भुरकाव कर के भी की जा सकती है।

तुलसिता या मृदुरोमिला आसिता रोग

यह रोग कोलीटोट्राइम लेजिनेरियम नामक फफूँद से फैलता है। इस रोग के प्रकोप से कद्दूवर्गीय सब्जियों की पत्तियों के नीचे की सतह पर फफूँद सी जमी प्रतीत होती है तथा ऊपरी सतह पर पीले-पीले धब्बे बन जाते है। इस रोग से खीरा,तोरई तथा खरबूजे में अधिक हानि होती है।

रोकथाम
इस रोग की रोकथाम हेतु अधिक रोगी बेलों को काट कर डायथेन जेड -78 या मेंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 10 दिन के अंतराल से छिड़काव करना चाहिए तथा ब्लाईटॉक्स 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करके भी रोग की रोकथाम की जा सकती है। जहाँ संभव हो रोगरोधी किस्मों का प्रयोग करना चाहिए।

एन्थ्रेक्नोज या झुलसा रोग

यह रोग कोलीटोट्राइम लेजीनेरियम नामक फफूँद से फैलता है। इस रोग से विशेष तोर पर खरबूजे, लौकी व खीरे में अधिक हानि होती है। यह रोग पर्णशिराओं पर धब्बे के रूप में दिखाई देता है जो बाद में 1 सेंटीमीटर व्यास के हो जाते है। इनका रंग भूरा तथा आकार कोणीय होता है। रोगग्रस्त पत्तियाँ कई धब्बों से मिलने के कारण सुख जाती है। अनुकूल वातावरण में यह धब्बे पौधों व अन्य भागों व फलों पर भी पाए जाते है। यह रोग मुख्य रूप से मृदोढ़ है, परन्तु बीज से भी फैलता है।

रोकथाम
इस की रोकथाम हेतु बीजों को परायुक्त जैसे थाइरम 2 ग्राम प्रति किलो बीज या एग्रोसान जीएन 2-2.5 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करके बोना चाहिए। इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही थाइरम 2 किलोग्राम या केप्टान 3 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर का छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर 15 के अंतराल पर दोहराना चाहिए।

फल विगलन रोग

यह रोग विभिन्न जाती के फफूँद जैसे पीथियम अफेनिडमेंडस, फ्यूजेरियम स्पीसीज, राइजोक्टोनिया स्पीसीज, स्केलेरोशियम रोल्फासाई कोएनफोरा कुकरबिटेरम, ओफोनियम स्पीसीज तथा फाइटहोपथोरा स्पीसीज के कारण यह रोग तोरई, लौकी, करेला, परवल व खीरा में पाया जाता है। प्रभावित फलों पर गहरे धब्बे बन जाते है। ऐसे फल जो मृदा के सम्पर्क में आते हे उन्हें रोग लगने की ज्यादा सम्भावना रहती हैं। भंडारण के समय यदि कोई रोग ग्रस्त फल पहुंचा गया हो तो वह स्वास्थ्य फलों को नुकसान पहुँचता हैं। यह सभी फफूंद मृदोढ़ रोग हैं।

रोकथाम
यदि फल जमीन से काम सम्पर्क में आता हैं तो फल कम रोग ग्रस्त होता हैं। इसके लिए भूमि पर बेलों एवं फलों के निचे पुआल व सरकंडे बिछा देने चाहिए। डायथेन जेड -78 का 0.25% घोल का छिड़काव करना चाहिए।

मोजेक रोग

यह रोग कुकुमिस 1,2 व 3 से फैलता हैं। मोजेक रोग के लक्षण पौधों के सभी बहरी भागो पर पाए जाते हैं। पत्तियों पर हरे व पीले धब्बे बनते हैं। रोगग्रस्त पत्तियाँ विकृत, झुर्रीदार, छोटी व कभी- कभी निचे की तरफ मुड़ी हुई होती हैं। इनकी शिराओं का हरा या पीला पड़ना इसका सामन्य लक्षण हैं। रोग का असर फलों पर भी पड़ता हैं जो चितकबरे व विकृत होते हैं। कभी- कभी उनका रंग सफ़ेद हो जाता हैं व टेड़े- मेढे हो जाते हैं। विष्णु बिजोड़ हो सकते हैं व अन्य परपोषी व खरपतवारों पर उत्तरजीवी रह सकते हैं। खेत में रोग प्रसार माहु से फैलता हैं।

रोकथाम
इसकी रोकथाम के लिए रोगग्रस्त पौधों को तुरंत नष्ट कर देना चाहिए। रोग का प्रसार रोकने के लिए डाइमेथोएट 1 मिली. प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव 15 दिन के अंतर में करना चाहिए। इमिडाक्लोप्रिड 0.20 मिली. पानी के घोल के छिड़काव से भी रोग के प्रसार को रोका जा सकता हैं।

जड़ ग्रन्थि रोग

यह रोग मेलाइडोगाइन जवनिका, मेलाइडोगाइन कन्कग्रिटा और मेलाइडोगाइन आरिनेरिया सूत्रकृमि से होता हैं। लगातार एक ही खेत में कद्दूवर्गीय सब्जियों को लेते रहने से इनका विस्तार अधिक होता हैं। इससे पौधों की पत्तियाँ पीली पड़कर झुलसने लगती हैं, तने का रंग पीला पड़ने लगता हैं। जड़ो पर छोटी- छोटी गांठे पड़ जाती हैं तथा फसल की पैदावार पर बहुत प्रभाव पड़ता हैं।

रोकथाम
रोकथाम के लिए उचित फसल चक्र अपनाकर सूत्रकृमियों को नष्ट किया जा सकता हैं फसल रोपाई करने वाले खेत में 1.5 किलोग्राम कार्बोफ्यूरान सक्रीय तत्व प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में डालकर बुवाई करनी चाहिए। ग्रीष्म ऋतू में खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई कर उसे सूर्य का ताप लगाने के लिए छोड़ देना चाहिए इससे सूत्रकृमि के अण्डे, लार्वा, मादा आदि नष्ट हो जाएंगे जिससे इनका प्रकोप कम हो जाएगा। सूत्रकृमियों की रोकथाम हेतु भूमि की बुवाई करने से पूर्व अच्छी पकी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से मिलानी चाहिए सब्जी की पौध तैयार करने के लिए नर्सरी में बुवाई पूर्व एलीडीकार्ब 4 ग्राम या कार्बोफ्यूरान 12 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से नीचे कतारों में डाल देना चाहिए ताकि आरंभ में जड़ ग्रंथि रोग को पनपने से रोका जा सके।

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