ज्वार-1

ज्वार की पैदावार कम करते है यह रोग ।

ज्वार भारत की एक महत्वपूर्ण खाद्य और चारा फसल है। जवार में अन्न-कंड, अर्गट (गदाकरस) अधिक हानिकारक है। इसलिए इन रोगों का नियंत्रण आवष्यक है।

1. ग्रेइन स्मट

यह रोग सभी कंड रोगों में सबसे अधिक हानिकारक है, जिससे पूरे भारत में अनाज की उपज को अत्याधिक नुकसान होता है। यह रोग ज्यादातर बरसाती और सिंचित ज्वार में पाया जाता है।

रोग के लक्षण:

यह रोग केवल दाने बनने के समय में आता है। रोग ग्रस्त बालियों में कुछ दाने सामान्य दाने से बडे होते हैं। जब रोग की तीव्रता बढ जाती है उस वक्त पूरी बालियां कंड रोग से प्रभावित हो जाती हैं।

स्वस्थ दाने के स्थान पर गोल अंडाकार काले रंग की बीजानुधानी बन जाती है जिसमें रोग को फैलाने वाले विषाणु होते हैं। इस रोग के कारण कुछ क्षेत्रों में 25 प्रतिशत तक नुकसान दर्ज करने की सूचना है।

रोग चक्र एवं अनुकूल वातावरण:

विषाणु बीज के तल पर जुडे होते हैं। वे बीज के साथ अंकुरित होते हैं और मूल क्षेत्र को भेदकर रोपाई (पौधे) को संक्रमित करते हैं। यदि रोग ग्रस्त बालियां स्वस्थ बालियों के साथ में काटा जाता है और एकसाथ थ्रेशिंग किया जाता है तो विषाणुधानी फटने से स्वस्थ दाने भी दूषित हो जाते हैं।

सबसे ज्यादा रोग का संक्रमण धीरे से अंकुरित होने वाले बीजों पर होता है। बारिश के समय में नमी वाला मौसम इस रोग के लिए अनुकूल है।

प्रबंधन:

रोगमुक्त बीजों का प्रयोग करें। विषाणु बाहरी रुप से बीज जनित होते हैं। इसलिए सल्फर का 4 से 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से बीज उपचार दें। नियमित रुप से खेतों की साफ-सफाई करनी चाहिए।

2. अर्गट (गदाकरस), शर्करा रोग

यह रोग भारत के कई प्रदेश में गंभीर रुप से पाया जाता है। आमतौर पर ज्वार की हाईब्रिड वेरायटी में वह रोग देखने को मिलता है।

रोग के लक्षण:

ज्वार के अर्गट (शर्करा रोग) के पहले लक्षणों में उसके संक्रमित फूलों में से एक शहद जैसा चिपचिपा तरल स्त्राव होता है। जब रोग की तीव्रता बढ़ जाती है तो चिपचिपा तरल स़्त्राव पौधों के पन्नौं पर एवं जमीन पे गिरने लगता है।

इसके अलावा रोगग्रस्त फूलों में दाने नहीं बनते। अनुकूल परिस्थितियों में सीधी या धुमावदार हल्के भूरे रंग की कवक (फफूंद) विकसित होती है। पौधों पर यही शहद और औस कीडे और चीटियों को भी आकर्षित करती है जो रोग को फैलाने में मदद करती है।

रोगचक्र एवं अनुकूल वातावरण:

आमतौर पर रोगजनक जमीन जनित होती है जो प्राथमिक रुप से रोग को फैलाते हैं, जबकि कीटक और चीटियॉ रोग को आगे फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। सितंबर मांह के दौरान ठंडा और नमी वाला मौसम रोग के लिए अनुकूल है।

प्रबंधन:

रोगप्रतिरोधी वेरायटी को बोना चाहिए। नियमित रुप से फसल की अदल-बदल करनी चाहिए। 20 जुलाई से पहले बीज बोने से रोग की संभावना कम रहती है। बीज को 20 प्रतिशत नमक के विलयन में भिगोने के बाद नीचे बैठे हुए स्वस्थ बीज को पानी से धोना है। इसके बाद उन स्वस्थ बीजों को छाव में सुखाने के बाद उनकी बिजाई करनी है। जाईरम या कैप्टान का 2 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से फूल आने वक्त पर छिडकाव बहुत ही फायदेमंद है।

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