मधुमक्खी प्रकृति की एक अद्भूत कृति है। एक फूल से दूसरे फूल पर मंडरा कर पर-परागण द्वारा फसलोत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ, फूलों से मकरन्द एकत्र कर औषधीय गुणों से युक्त अमृततुल्य शहद की जननी मधुमक्खी ही है। मधुमक्खी फसलों में 75 प्रतिषत पर-परागण कर फसल उत्पादन में कई गुना बढ़ोत्तरी करती है। अतः यदि यह कहा जाए कि मधुम्खी, प्रकृति एवं मनुष्य के सवंर्धन में प्रमुख भूमिका निभाती है तो अतिश्योक्ति न होगी। इसलिए जो कीट हमारे लिए इतना उपयोगी एवं लाभकारी है, उसका उचित संरक्षण करना हमारा परम कत्र्तव्य है।
वर्तमान समय में ग्लोबल वार्मिग एवं प्रदूषण जैसे शब्दों को प्रायः पढ़ा या सुना जा सकता है जिससे मनुष्य ही नहीं पूर्ण प्रकृति भी प्रभावित है। सही कहा गया है ‘‘स्वच्छ जलवायु करें चिरायु’’ स्वच्छ वातावरण, स्वच्छ भोजन एवं जल मानव जीवन को ही नहीं अन्य जीव जन्तुओं, पेड़-पौधों को भी लम्बी उम्र प्रदान करता है। फसलोत्पादन में सहायक लघु व्यवसाय मौनपालन प्रदूषण की इस ज्वलन्त समस्या से सबसे ज्यादा प्रभावित है । मधुमक्खियां एक समुदाय में रहती हैं, इसलिए इनमें रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों एवं शत्रुओं का संक्रमण अत्यधिक होता है दूषित जल व भोजन द्वारा प्रायः मधुमक्खियाँ भारी संख्या में मरती है समय रहते इनका उपचार न होने की स्थिति में क्षति होती है। उत्तराखण्ड में तराई-भाबर जैसे मैदानी क्षेत्रों में यूरोपियन मधुमक्खी (एपिस मेलिफेरा) तथा पर्वतीय क्षेत्रों मंे भारतीय मधुमक्खी (एपिस सिराना इडिंका) सफलतापूर्वक पाली जाती है। मधुमक्खी में जीवाणुजनित, विषाणुजनित, फफंूदी एवं प्रोटोजोआ जनित, पेचिश तथा माइट जनित रोगों के होने की संभावना रहती है। इन रोगों के प्रकोप से पूरा का पूरा मौनवंश समाप्त हो जाता है। मधुमक्खियों को क्रियाशील बनाये रखने के लिए उनका निरोगी होना अत्यन्त आवश्यक है
मौनवंश में लगने वाले प्रमुख रोगः-
मधुमक्खीपालन के दौरान आने वाली समस्याओं में मधुमक्खी में लगने वाले रोग एवं शत्रु प्रमुख हैं जिनके कारण सम्पूर्ण मौनव्यवसाय प्रभावित होता है। मधुमक्खी का कुशल प्रबंधन न हो पाने के कारण अच्छा खासा स्वस्थ मौनवंश पलभर में रोगों से ग्रस्त होकर नष्ट हो सकता है। अतः मधुमक्खी में लगने वाले सूक्ष्मजीवी रोगों, कीटों एवं शत्रुओं की सम्पूर्ण जानकारी तथा उनके उपचार का ज्ञान होना एक कुशल मौनपालक की सबसे प्रमुख जरूरत है ताकि समयानुसार मधुमक्खी का सफल प्रबंधन कर पूर्ण लाभ कमाया जा सके।
मधुमक्खी वंश के प्रमुख रोग
जीवाणु जनित रोग
यूरोपियन फाउल ब्रूउ विषाणुजनित, थाईसैक ब्रूड फफूंदी जनित रोग माईटजनित रोग-: वरोआ डैस्ट्क्टर ट्रोपीलेइलेप्स क्लेरी
मधुमक्खी वंश के प्रमुख शत्रु
मोमी पतंगा, मोमी पतंगे की सूड़ियाँ, मकड़जाल, बर्र (ततैया), चींटियां
उत्तराखण्ड में मकरन्द तथा पराग वाले फूल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है जिससे मौनपालन में अपार सफलता प्राप्त की जा सकती है। रोगों के प्रकोप के कारण मधुमक्खियाँ कोई भी कार्य सुचारू रूप से नहीं कर पातीं तथा भरपूर मौनचर (मकरन्द व परागयुक्त फसलें) होने के बावजूद भी मौनपालकों को नुकसान ही उठाना पड़ता है। पिछले कई वर्षो से इन रोगों के प्रबन्धन के लिए कई प्रकार के रासायनिक पदार्थों तथा औषधियों का प्रयोग किया जा रहा है। जिनके प्रयोग से कुछ समय के लिए तो रोग का निदान हो जाता है परन्तु कुछ समय बाद फिर से मधुमक्खियाँ रोगग्रस्त हो जाती हंै जिससे शहद तथा अन्य मौनपदार्थ की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। सफल मौनपालन के प्रमुख स्तम्भ है: स्वस्थ मौनवंश एवं मौनचर की उपलब्धता। दोनों एक-दूसरे के पर्याय है किन्तु प्रदूषित जलवायु एवं भोजन से मधुमक्खियों में रोगों के प्रकोप के बढ़ने एवं फसलों पर अंधाधुन्ध रासायनिक दवाइयों के प्रयोग से मधुमक्खियों की संख्या में कमी आयी है। यह मौनपालन व्यवसाय के लिए एक ज्वलन्त समस्या है जिसके निदान के लिए कई प्रयास पूरे विश्व में किये जा रहे हैं। इसी संदर्भ में एक शोधपरक प्रयास मैंने भी किया है।
मधुवाटिका के प्रदूषित वातावरण को सरल, सस्ते व सुलभ माध्यम से स्वच्छ किया जा सकता है और वो सस्ता साधन है- गाय का मूत्र। गाय के मूत्र का प्रयोग हम सदियों से करते आये हैं लेकिन रासायनिक दवाओं के प्रयोग की अंधी दौड़ में शामिल होने से हमने अपने वातावरण, स्वास्थ्य को तो हा्रास किया ही है साथ ही साथ फसलों पर लगे हानिकारक कीटों को खाने वाले हितैषी कीटों तथा पर-परागण कर फसलोत्पादन बढ़ाने वाली मधुमक्खियों को भी नुकसान पहुँचाया है।
मधुमक्खियों के गोमूत्र के सम्पर्क में आते ही उनके व्यवहार में सकारात्मक बदलाव आ जाता है। वे ज्यादा सक्रिय हो जाती हंै तथा रोगग्रस्त शिशुुओं को उनके कोष्ठकों से बाहर निकालकर सफाई शुरू कर देती हंै। रानी मधुमक्खी भी अण्डे सुचारू रूप से देती है तथा मौनवंश में ब्रूड तथा वयस्क मधुमक्खियों पर गोमूत्र का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है। वर्तमान में गाय के शुद्ध मूत्र के नियमित छिड़काव से मौनपालन एवं शहद उत्पादन व्यवसाय को नई जान मिली है। रासायनिक दवाओं की बजाए गोमूत्र छिड़काव ने मधुमक्खी के स्वास्थ्य तथा आयु में सुधार कर उनकी उत्पादकता में गुणात्मक वृद्धि की है। 10-15 दिन के अन्तराल पर गोमूत्र का प्रयोग कर वे अपने मौनवंशों को ताकतवर बनाये रखते हैं तथा ये मौनवंश के लिए एक संजीवनी साबित हुआ है। अनुकूल मौसम (अक्टूबर से मार्च) तक मौनवंशों का विभाजन भी सफलतापूर्वक किया जा रहा है क्योंकि मधुमक्खियों के स्वस्थ होने से उनकी संख्या में भी वृद्धि हो रही है। मौनपालकों के अनुसार प्रतिकूल मौसम में भी गोमूत्र का नियमित प्रयोग मौनवंश को रोग रहित तथा सशक्त बनाये रखता है। उत्तराण्ड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान बिहार तथा अन्य राज्यों में भी विभिन्न मौनपालकों द्वारा गोमूत्र का प्रयोग कर मधुमक्खियों को स्वस्थ व सशक्त बनाकर शहद के उत्पादन में कई गुना वृद्धि की गई है।
गोमूत्र को प्रयोग में लाने की तकनीक
1. गोमूत्र को किसी अच्छे स्प्रेयर द्वारा हल्के हाथों से तथा (मौनफ्रेम से एक हाथ की दूरी बनाकर) ब्रूड/मधुमक्खियों पर छिड़कें।
2. ध्यान रखें कि पीठ वाला नैपसेक स्प्रेयर का प्रयोग न करें।
3. मौनगृह खोलने से पहले गोमूत्र का छिड़काव मौनगृह के आसपास अवश्य करें। इससे मधुमक्खियाँ शांत हो जाती है तथा डंक भी नही मारती है।
4. गोमूत्र का छिड़काव प्रतिकूल मौसम में ही करें जब शहद उत्पादन नहीं होता हैं मौनवंशों में कृत्रिम भोजन (पराग व चीनी के घोल) का प्रबंध करते रहने तथा सिर्फ गोमूत्र के छिड़काव द्वारा मौनों का रोगों तथा शत्रुओं से बचाव किया जा सकता है।
5. अनुकूल मौसम में शहद बनने से पहले यानि सितम्बर व अक्टूबर में मधुमक्खियों पर गोमूत्र का छिड़काव करें।
6. मौनगृहों से मौनवंशों को बाहर निकाल कर मौनगृहों को अन्दर व बाहर से गोमूत्र का लेप करें।
7.मौनफ्रेम खाली हो जाने पर कुछ देर गोमूत्र में डुबाकर रखने तथा सुखाकर मौनगृहों में रखने से उनपर रोगों से बचाव होता है।
8. अनुकूल मौसम में शहद निकालने के बाद खाली मौनफ्रेमों पर गोमूत्र का हल्का छिड़काव करें।
9. मौनवंश में रोग आने की स्थिति में मौनफ्रेम निकालकर उसपर गोमूत्र का छिड़काव करें।
10. यदि मौनवंश में रोग नहीं हैं तो 10-15 के अंतराल पर मौनगृह का ढक्कन निकालकर मौनफ्रेम को बिना बाहर निकाले ऊपर से ही गोमूत्र का छिड़काव करें।
11. मौनगृह के प्रवेश द्वारा से भी गोमूत्र का छिड़काव किया जा सकता है।
12. माइट जनित रोगों के निदान के लिए तलपट पर गोंद लगा कागज जरूर बिछायें तथा रोगग्रस्त फ्रेम पर गोमूत्र का छिड़काव 3-4 दिन पर करें। श्रमिक मधुमक्खी द्वारा सफाई करने पर माइट तलपट पर गिरते ही गोंद वाले कागज पर चिपक जाता है जिससे वो दुबारा मधुमक्खी पर चढ़ नहीं पाता है। गिरे हुए माईट से भरे हुए कागज को हटाते रहें।
13. 10-15 दिन के अन्तराल पर मौनवंशों में गोमूत्र का छिड़काव अवश्य करें अथवा रोग का प्रकोप बढ़ जायेगा।
14. मौनवाटिका में प्रतिदिन गोमूत्र छिड़ककर शुद्ध करें।. मौनवंशों की पूर्णतया साफ-सफाई करना आवश्यक है।
15. गोमूत्र का छिड़काव लूटपाट (राॅबिंग) के दौरान अवश्य करें। गोमूत्र की गंध से मधु की गंध आनी बन्द हो जाती है जिससे मधुमक्खी में होने वाली लड़ाई खत्म हो जाती है।
16. मौनगृहों को सदैव लोहे के स्टैंड पर ही रखना चाहिए तथा स्टैंड के चारों पैरों के नीचे पानी से भरी कटोरियां रखनी चाहिए। चींटियां मौनगृह के अन्दर प्रवेश नहीं कर पाती हैं। पानी में पेट्रोल या मिट्टी का तेल नहीं मिलाना चाहिए। शुद्ध गोमूत्र के नियमित छिड़काव से भी चींटियों को प्रकोप कम हो जाता है।
17. मौनगृहों को पीछे की ओर से थोड़ा ऊपर उठाकर रखें ताकि मधुमक्खी प्रवेश द्वार से आसानी से मौनवंश में उत्पन्न गंदगी को बाहर फेंक सके।
18 .गोमूत्र के छिड़काव के साथ किसी भी अन्य दवा या रासायनिक का प्रयोग न करें।
19 .बर्रों पर भी गौमूत्र का चमत्कारिक प्रभाव देखा गया है। बर्रों के प्रकोप के समय मौनगृह के प्रवेश द्वार को छोटा कर देना चाहिए तथा मौनगृहों के आस-पास नियमित गोमूत्र का छिड़काव कर बर्रों को भगाया जा सकता है। गौमूत्र की गंध से बर्र भाग जाते हैं।
20. मौनगृहों में मौनवंशों को मोमी पतंगों से बचाने लिए नियमित रूप से 10-15 दिन के अन्तरालः पर शुद्ध गोमूत्र का छिड़काव करना चाहिए। यदि मोमी पतंगों का हल्का प्रकोप दिखाई देते ही गोमूत्र छिड़क देना चाहिए। अगले दिन तलपट पर व भीतरी कवर पर इसकी सूड़ियां मधुमक्खियों द्वारा फेंकी हुई मिलेंगी, क्योंकि गोमूत्र के सम्पर्क में आकर मधुमक्खियां सूंड़ियों वाले कोष्ठकों को काट-काटकर फेंक कर मौनवंश की सफाई कर देती हैं। सफाई एवं गोमूत्र के नियमित प्रयोग से मधुमक्खियां इन्हें हमेशा के लिए भगा देती हैं। 50-100 मि.ली. षुद्ध गोमूत्र प्रति मौनगृह रोगग्रस्त मौनवंषों पर 10-15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करने पर निम्नलिखित परिणाम परिलक्षित होते हैं:
1. रोगग्रस्त मौनवंष पर गोमूत्र के छिड़काव के बाद श्रमिक मौनें ज्यादा सक्रिय हो जाती हैं तथा रोगग्रस्त षिषुओ को काट-काटकर कोश्ठकों से बाहर फेंक कर कोष्ठकों की पूर्ण रूप से सफाई कर देती हैं।
2. कोष्ठकों को तेजी से साफ करने के साथ ही श्रमिक मौनें कटे हुए बू्रड को मौनवंष से बाहर भी फेंक देती हंै तथा रानी मौन इन साफ किए कोश्ठकों में सुचारू रूप से अण्डे देना षुरू कर देती हैं।
3. प्रतिकूल मौसम में गोमूत्र के 10-15 दिन के अंतराल पर नियमित छिड़काव से जीवाणुजनित, विषाणुजनित, माईटजनित रोगों से मौनों का षत-प्रतिषत बचाव होता है।
4. गोमूत्र के प्रयोग से रोगों के साथ ही साथ मौंनों को हानि पहुंचाने वाले कीट जेसे मोमी पतिंगा, चींटी, बर्र का भी प्रबंधन होता है।
5.इस प्राकृतिक पदार्थ के नियमित छिड़काव से मौनवंष स्वस्थ व सषक्त हो जाते हैं तथा मौनों में सफाई (ग्रूमिंग) करने की क्षमता में बढ़ोतरी होने से वह किसी भी षत्रु कीट व रोगों को मौनवंषों में आने से रोकती है या आने पर सफाई द्वारा कुषल प्रबंधन करती है।
6.गोमूत्र के छिड़काव से श्रमिक मधुमक्खियों, बू्रड (षिषुओं) रानी मधुमक्खी पर किसी भी प्रकार का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है।
7. गोमूत्र के छिड़काव से उत्पादित षहद के नमूनों के परीक्षण के बाद षहद षुद्ध पाया गया है। अतः षहद की गुणवत्ता पर भी इसका कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। षहद उत्पादन में चार गुना वृद्धि होती है।
8. गोमूत्र के प्रयोग से मौनवंषों में ब्रूड पूरी तरह से स्वस्थ, उभरे हुए सील्ड कोष्ठकोें के साथ एक-सार होता है। षहद के कोष्ठक एक साथ एक पंक्ति मे ंहोते हैं। बू्रड पराग व षहद के कोष्ठक मिले-जुले नहीं होते हैं। अलग-अलग पंक्ति में एक-सार होते हैं।
9. लार्वा का आकार बड़ा होता है तथा वह पूर्ण रूप से स्वस्थ ‘सी’ अंग्रेजी के अक्षर ‘ब्’ आकार का होता है। मधुमक्खियों का आकार भी बड़ा होता है।
10. मौनवंषों पर गोमूत्र के छिड़काव के साथ-साथ मौनवाटिका में गोमूत्र का छिड़काव करते रहने से प्राकृतिक षत्रुओं जैसे चींटी, बर्र, हाॅक् माॅथ का कुषल प्रबध्ंान होता है।
11. प्रतिकूल मौसम में कृत्रिम भोजन देने के समय होने वाली मौनों की आपसी लूटपाट पर भी गोमूत्र का प्रभाव देखा गया है। गोमूत्र के छिड़काव से आपस में लड़ने वाली मौंनें षांत होकर लड़ना बन्द कर देती हैं जिससे लूटपाट के दौरान बहुतायत में मरने वाली मौंनों को इस सरल व सस्ते पदार्थ के छिड़काव से बचाया जा सकता है।
12. मौनों के अत्यधिक तेज व चिड़चिड़ा होने पर गोमूत्र का छिड़काव उन्हें षांत कर देता है और मौनपालक आसानी से मौनवंषों का निरीक्षण-परीक्षण कर सकते हैं।
13. चींटियों के प्रकोप हो जाने पर भी गोमूत्र का छिड़काव करके चींटियों का प्रबंधन किया जा सकता है। मौनगृहों के नीचे रखे लोहे/लकड़ी के स्टैण्ड के चारों पैरों के नीचे पानी भरी कटोरियां रखें तथा उसमें थोड़ा सा गोमूत्र का छिड़काव कर दें तो चींटियों की समस्या का समाधान हो जाता है।
14. इस प्रकार से पषु जन्य प्राकृतिक पदार्थ गोमूत्र से मधुमक्खी का कुषल प्रबंधन किया जा सकता है। गोमूत्र मधुमक्खियों की सभी बिमारियों एवं षत्रुओं के लिए एक अचूक दवा है।
विदेषी रासायनिक पटिट्यों का बहिष्कार करते हुए देसी व प्राकृतिक पषुजन्य पदार्थ गोमूत्र द्वारा, सरल व सुलभ तरीके से मौनपालन करके कई गुना ज्यादा लाभ कमाया जा सकता है।
गोमूत्र को प्रयोग में लाने से पहले की सावधाानियां:
- गोमूत्र यदि देसी गाय का हो तो अति उत्तम है अन्यथा किसी भी गाय का मूत्र प्रयोग में लाया जा सकता है।
2. गोमूत्र का भण्डारण साफ सुथरे बर्तन में ही करें।3-4 महीनों तक गोमूत्र का भण्डारण किया जा सकता है।
3. प्रतिकूल मौसम में गोमूत्र को मौनगृहों में ब्रूड व मधुमक्खियों पर हल्के हाथों से (स्प्रेयर) द्वारा छिड़कें तथा मौनगृहों को पीछे की ओर से थोड़ा सा उठाकर रखें।
4. तेज धार वाले स्प्रेयर का प्रयोग न करें। ध्यान रहे कि ब्रूड व मधुमक्खियों को गीला नहीं करना है। ज्यादा छिड़काव से ब्रूड व मधुमक्खियां मर सकती हैं या ब्रूड तैरकर बाहर आ सकता है।
5. माईटजनित रोग यदि ज्यादा हो तेा इससे बचाव के लिए तलपट पर चिपचिपा कागज बिछाएं तब मौनवंषों पर गोमूत्र का छिड़काव करें। मौनों के माईट से प्रभावित कोश्ठकों को काटकर फेंकने पर या माईटग्रसित मौनों की सफाई करने पर माईट तलपट पर गिरकर चिपक जाएगा तथा दुबारा मधुमक्खी पर नहीं चढ़ पाएगा। ऐसे चिपचिपे कागज को 3-4 दिन बाद मौनगृह से बाहर निकाल कर जला दें।
6. अनुकूल मौसम में मधु निकालते समय गोमूत्र का छिड़काव न करें। यदि करना पड़ जाए तो मधु को सिर्फ मधुकक्ष से ही निकालें। कच्चे मधु में गोमूत्र का छिड़काव न करें। मधु से भरे फ्रेमों पर गोमूत्र का छिड़काव न करें।
7. गोमूत्र, का मौनवंषों पर नियमित प्रयोग करना चाहिए तथा मधु को मधुकक्ष से निष्कासित करना चाहिए।
8. मधु निकालने के बाद खाली फ्रेमों पर गोमूत्र का हल्का छिड़काव करें।
9. मधु की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए मधु का सही प्रकार से संचय करना अति आवष्यक है। मधु का भण्डारण साफ सुथरे भोज्य प्रदार्थ रखने वाले बर्तन में ही करें। पुराने, जंग लगे गंदे टीन के कनस्तर, बाल्टियाँ आदि के इस्तेमाल से मधु में भारी धातु (लेड) की मात्रा बढ़ जाती है। ऐसा मधु शुध्द नही माना जाता और ऐसे मधु को बाजार भाव भी कम मिलता है तथा आयात निर्यात के लिए भी ऐसा मधु उचित नही माना जाता।
गाय की स्वर्णग्रंथी लाभदायक:क्यों गाय का मूत्र इतना प्रभावशाली है ? क्यों पुरातन काल से गोमूत्र की पूजा की जाती है? क्यों हर धार्मिक कर्मकाण्ड में गोमूत्र से ही षुद्धि की जाती है ? यह एक विस्तृत षोध का विशय है। लेकिन प्राप्त साहित्य के अनुसार गाय के षरीर में स्वर्णग्रंथि का जिक्र हुआ है जो कि स्वर्णक्षार आरमआॅक्साईड को बनाती हैं, जिससे युक्त दूध व गाय का मूत्र सर्वथा उपयोगी है। इसके साथ-साथ नाइट्रोजन, यूरिया, गंधक, अमोनिया, सल्फ्यूरिक एसिड, फाॅस्फेट, सोडियम काॅपर, सिल्वर, स्वर्ण, पौटेषियम, मैंगनीज, विटामिन, हार्मोन, स्वर्णक्षार जैसे कई रोगाणुनाषक पदार्थ भी प्राकृतिक रूप से गोमूत्र में विद्यमान है तथा मधुमक्खियों मंे नई ऊर्जा का संचार करते हैं।
मधुमक्खी प्रयोग में होने वाले रोगों की रोकथाम गोमूत्र के प्रयोग से आसानी से की जा सकती है क्योंकि इस रोग के लिए प्रभावशाली पाई जाने वाली दवाईयाँ बाजार में महंगी तो पड़ती ही हैं साथ ही साथ आसानी से व समय पर उपलब्ध भी नहीं हो पाती है तथा मधुमक्खी पर इनका विपरीत प्रभाव भी पड़ता है तथा शहद की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। जबकि गोमूत्र सस्ता, टिकाऊ, प्रभावशाली होने के साथ-साथ सर्वसुलभ भी है। इसका मधुमक्खी, व्यक्ति एंव वातावरण पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है तथा मौनपालन में अत्यधिक धनोर्पाजनकर आशातीत सफलता प्राप्त की जा सकती ह।
डाॅ0 रूचिरा तिवारी ,सहायक प्राध्यापक,कीट विज्ञान विभाग ,गो0ब0 पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय , पन्तनगर, ऊ0सि0 नगर, उत्तराखण्ड
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