आमतौर पर गाय /भैंस ब्याने के मौके तक तंदरूस्त होती हैं और कटड़ा भी आसानी से बाहर आ जाता है। पर खून में खास तत्वों की कमी के कारण वे कुछ बीमारियों का शिकार हो जाती हैं पर यदि ब्याने के 2-3 महीने में ब्याने के दौरान कुछ बातों का ध्यान रख लिया जाये तो ये समस्याएं नहीं आती।
सूतकी बुखार- यह बीमारी ज्यादा दूध देने वाली गाय/ भैंसों में ही होती है। भैंसों, गायों में तीसरे से सातवें महीने तक यह बीमारी होने की ज्यादा संभावना है। सूतकी बुखार खून में कैल्शियम की कम के कारण होता है। ब्याने के बाद कैल्शियम की जरूरत बढ़ जाती है, पर कैल्शियम कम होने के कारण पशु को यह बीमारी हो जाती है जिससे मोक लग जाती है या आंतड़ियों में सोजिश हो जाती है। सूतकी बुखार को कैल्शियम बरोगलूकोनेट से ठीक किया जा सकता है। ब्याने से कुछ दिन पहले खुराक में प्रोटीन की मात्रा कम करके अनाज की मात्रा बढ़ा दें। आखिरी दो हफ्तों में डिसीरोल (5 ग्राम) का पैकेट दाने में मिलाकर दस दिनों के लिए दें।
ब्याने के उपरंत पेशाब में रक्त का आना- यह बीमारी भी तीसरे महीने में ज्यादा होती है। खून में फासफोरस की कमी के कारण लाल रक्ताणु फट जाते हैं और उनमें लाल रंग की हीमोग्लोबिन गुर्दों के द्वारा पेशाब में आ जाती है जिससे पेशाब का रंग लाल हो जाता है। इसमें पशु को बुखार नहीं होता पर पशु घास खाना बंद कर देते हैं। इसका इलाज जल्दी कर देना चाहिए नही तो गुर्दे अपना काम करना बंद कर सकते हैं। इस बीमारी का इलाज सोडियम एसिड फास्फेट से सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
कीटोसिस- गाभिन पशुओं को आखिरी तिमाही में ज्यादा ऊर्जा वाली खुराक देनी बहुत जरूरी है। ब्याने के बाद पहले दिन लवेरी को तीन किलो के करीब दलिया जरूर खिलायें। ऐसा ना करने पर खून में ग्लूकोज़ की मात्रा कम हो जाती है और कीटोन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे पशु घास खाना बंद कर देता है और तूड़ी और सूखा घास खाता रहता है। पशु दूध भी बहुत कम देता है। पशु बार बार दांता रगड़ता है। इसके इलाज के लिए घना ग्लूकोज़ का घोल खून वाली नाड़ी में चढ़ाना चाहिए।
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